हरिशंकर परसाई ने इस व्यंग्य रचना में समाज में फैले हुए अज्ञान, अहंकार, स्वार्थ, धोखा आदि का जोरदार खंडन किया है। इनकी रचनाओं में तीखा व्यंग्य अधिक होता है। इस लेख में लेखक ने निन्दा को नवरसों के समान एक रस माना है। उनका कहना है कि निन्दा रस में हर कोई डुबकियाँ लगाकर आनंद लेता है। उनकी दृष्टि में निन्दा रस की महिमा अपार है।
हरिशंकर परसाई कहते हैं कि उनका एक मित्र बिना बताए लेखक के घर पहुंचता है। दूसरे लोगों के बारे में घंटों तक अनाप-शनाप बककर चला जाता है। लेखक को उन लोगों से कोई वास्ता भी नहीं था। फिर भी वे अपने निन्दक मित्र की बकवास सुनते ही रहे।
लेखक का मित्र बड़ा विचित्र व्यक्ति है। उसके पास कई परिचित लोगों के दोषों का भंडार है। वह हर किसी के सामने दूसरे लोगों के अवगुणों की निन्दा करता रहता है। कई लोग उस निन्दा रस का आनन्द लेते हैं।
चार-पाँच निन्दकों को एक जगह बिठाकर उनकी टीका-टिप्पणी सुननी चाहिए। वे सब इतनी तल्लीनता के साथ, मजेदार भाषा में दूसरों की निन्दा करने लगते हैं कि कोई भी उस महफिल से उठने का नाम नहीं लेता। निन्दक महाशय दूसरों की निन्दा करने में अपने को धन्य मानते हैं। निन्दा करना इनके लिए एक ‘टॉनिक’ है। यह टॉनिक इनकी उम्र और ताकत को बढ़ाती है।
निन्दकों के भी संघ हैं। उन संघ के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव वगैरह पदाधिकारी भी हैं। इनमें अपने काम के प्रति लगन है, श्रद्धा है और प्रतिबद्धता भी है। निन्दकों का संगठन शक्ति और कार्य करने की पदधति निरुपम है।
जो लोग हीनता और कमजोरी के शिकार हैं, वे ही दूसरों की निन्दा करने लगते हैं। निन्दा करने से इनका कोई लाभ या प्रयोजन नहीं है; परन्तु निन्दा करने में ये बड़ा सुख और आनन्द पाते हैं।
निन्दा की महिमा अपार है, अपरंपार है। निन्दकों की निन्दा नहीं करनी चाहिए। महात्मा सूरदास जी ने कहा था – ‘निन्दा सबद रसाल’ अर्थात् निन्दा करना मीठे आम का स्वाद लेने के
लेखक कहते हैं कि निन्दकों के ‘धृतराष्ट्र आलिंगन’ से बचना बड़ा कठिन है। निन्दकों के चंगुल से कोई चतुर ही बच सकता है।