‘जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया’ के माध्यम से कवि यह कहना चाहता है कि यश, वैभव और मान-सम्मान, प्रतिष्ठा जैसा कुछ नहीं है। ये भौतिक वस्तुएँ छलावा मात्र हैं। इनको पाने के लिए व्यक्ति जितना ही भागता है उतना ही भ्रमित होता है क्योंकि उसके हाथ कुछ नहीं लगता है। इन भौतिक वस्तुओं को पाने के लिए भ्रमित रहता है।