परसाई जी कहते हैं कि निन्दा का उद्गम ही हीनता और कमजोरी से होता है। मनुष्य अपनी ही हीनता से दबता है। वह दूसरों की निन्दा करके ऐसा अनुभव करता है कि वे सब निकृष्ट है और वह उनसे अच्छा है। उसके अहं की इससे तुष्टि होती है। बड़ी लकीर को कुछ मिटाकर ही छोटी लंकीर बड़ी बनती है।