ससंदर्भ भाव स्पष्ट कीजिए:
तुलसी संत सुअंब तरु, फूलि फलहिं पर-हेत। इतते ये पाहन हनत, उतते वे फल देत॥
प्रसंग : प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य वैभव’ के ‘तुलसीदास के दोहे’ नामक संग्रह से लिया गया है। इसके रचयिता तुलसीदास हैं।संदर्भ : यहाँ तुलसीदास संत लोगों की विशेषता पर प्रकाश डाल रहे हैं।स्पष्टीकरण : तुलसीदास कहते हैं कि संत पुरुष उस आम के पेड़ की तरह होते हैं जो हमेशा दूसरों को मीठे फल देता रहता है। बदले में वह कुछ भी नहीं लेता। वह तो दूसरों का उपकार करने के लिए ही फलता-फूलता है। लोग धरती से पत्थर भी फेंकते हैं तो भी वह उन्हें फल ही देता है। संत पुरुष भी ठीक वैसे ही होते है। उनका कितना भी अपमान किया जाए, वे विनम्रता नहीं त्यागते हैं। क्रोध नहीं करते हैं। उनके जीवन का उद्देश्य दूसरों का हित करना ही होता है। एक जगह तुलसी यह भी कहते हैं कि ‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई’ अर्थात् दूसरों की भलाई से बड़ा और कोई धर्म नहीं हो सकता। संत पुरुषों के लिए परहित ही धर्म होता है। विशेष : अवधी भाषा का प्रयोग। लोक-कल्याण की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है।