सीताजी कहती है कि मेरा मन इस कुटिया में राजभवन की तरह लग गया है। मैं यहाँ दूसरों की सेवा चाकरी के बल पर नहीं पलती हूँ। यहाँ श्रम करने से स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है। वन में ही मैं गृहस्थ जीवन जी रही हूँ। मेरा यह जीवन ही सबसे बड़ा राजसुख है। यही सच्चा राजसुख है।