1) मेरी कुटिया में राजभवन मन भाया
सम्राट स्वयं प्राणेश, सचिव देवर हैं,
देते आ कर अशीष हमें मुनिवर हैं,
धन तुच्छ यहाँ, यद्यपि असंख्य आकर हैं।
पानी पीते मृग, सिंह एक तट पर हैं।
सीता रानी को यहाँ लाभ ही लाया।
मेरी कुटिया में राजभवन मन भाया।
सीता जी वन में श्रीरामचन्द्र जी के संग रहते हुए वन को तथा कुटिया को राजभवन की तरह मानकर जीवन-यापन करती हैं। सीता जी कहती हैं- मेरा मन इस कुटिया में राजभवन की तरह लग गया है। स्वयं प्राणेश साथ में हैं और देवर लक्ष्मण सचिव बने हुए हैं। मुनिवर हमें यहाँ आशीर्वाद देते हैं। यहाँ की वन-संपत्ति के सामने बाकी धन तुच्छ है। एक ही नदी-तट पर मृग और सिंह पानी पीते हैं। सीता जी को यहाँ लाभ ही लाभ है।
शब्दार्थ :
- मन भाया – मन को अच्छा लगा;
- सचिव – मंत्री;
- अशीष – आशीर्वाद;
- आकर – खजाना;
- भाया – अच्छा लगा;
- प्राणेश – पति।
2) औरों के हाथों यहाँ नहीं पलती हूँ,
अपने पैरों पर खड़ी आप चलती हूँ,
श्रमवारि-बिन्दु फल स्वास्थ्य-शुक्ति फलती हूँ
अपने अंचल से व्यंजन आप झलती हूँ।
तनु-लता-सफलता-स्वादु आज ही आया
मेरी कुटिया में राजभवन मन भाया।
सीता जी कहती हैं कि मैं यहाँ औरों के हाथों नहीं पलती हूँ, अपने पैरों पर खड़ी हूँ, श्रम करने से स्वास्थ्य अच्छा है, अपने आँचल से हवा कर लेती हूँ। तन-बदन लता-बेलों की तरह लग रहा है।
शब्दार्थ :
- श्रमवारि-बिन्दु – परिश्रम से निकलने वाला पसीना, पसीना;
- शुक्ति – कहावत
3) किसलय-कर स्वागत हेतु हिला करते हैं
मृदु मनोभाव-सम सुमन खिला करते हैं
डाली-डाली में नव फल नित्य मिला करते हैं
तृण-तृण पर मुक्ता-भार झिला करते हैं।
निधि खोले दिखला रही प्रकृति निज माया,
मेरी कुटिया में राजभवन मन भाया।
कोमल पत्ते स्वागत करते हैं, मन को प्रफुल्लित करने वाले सुमन खिले हैं, डाली-डाली पर नित्य फल, मिल रहे हैं। तृण-तृण पर मानों मोतियों का भार झिलमिला रहा है। प्रकृति ने मानो अपनी निधि दे दी है।
शब्दार्थ :
- किसलय-कर – कोमल हाथ;
- मुक्ता – मोती;
- सुमन – फूल;
- झिलाते – सुंदर लगते, झिलमिलाते हैं।
4) कहता है कौन कि भाग्य ठगा है मेरा?
वह सुना हुआ भय दूर भगा है मेरा।
कुछ करने में अब हाथ लगा है मेरा,
वन में ही तो गार्हस्थ्य जगा है मेरा।
वह वधू जानकी बनी आज यह जाया
मेरी कुटिया में राजभवन मन भाया।
कौन कहता है कि भाग्य ठगा गया, जब कि भाग्य खुल गया है। भय दूर भाग गया है। कुछ करने की इच्छा होती है। वन में ही गृहस्थी है मेरी। जानकी वधू बनकर आयी है।
शब्दार्थ :
- निधी – खजाना;
- ठगा – धोखा देना;
- गार्हस्थ्य – ग्रहस्थ, पारिवारिक जीवन
5) फल-फूलों से हैं लदी डालियाँ मेरी,
वे हरी पत्तलें-भरी थालियाँ मेरी,
मुनि बालायें हैं यहाँ आलियाँ मेरी।
तटीनी की लहरें और तालियाँ मेरी।
क्रीडा-सामग्री बनी स्वयं निज छाया।
मेरी कुटिया में राजभवन मन भाया।
फल-फूलों से डालियाँ सजी हुई हैं, हरी पत्तलें मानो थालियाँ है, मुनि बालाएँ सखियाँ हैं, नदी की लहरें तालियाँ हैं, सारी क्रीड़ा-सामग्री यहाँ उपलब्ध हैं। इस प्रकार मेरी कुटिया में मुझे राजभवन भाता है|
शब्दार्थ :
- जाया – पत्नी;
- आलियाँ – सखियाँ
- तटिनी – नदी