1) वह तोड़ती पत्थर।
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन, प्रिय कर्म रत मन।
लेखक ने एक मजदूरनी को इलाहाबाद के सड़क पर पत्थर तोड़ते देखा। वहाँ कोई छायादार . पेड़ भी न था, जिसके नीचे वह बैठती। वह साँवले रंग की थी, पर उसका यौवन भरा हुआ था। नीचे नेत्र किए वह पूरे मन से अपने काम में लगी हुई थी।
शब्दार्थ :
छायादार – धूप से रक्षण।
2) गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार –
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप।
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू
गर्द चिनगी छा गई,
प्रायः हुई दुपहर
वह तोड़ती पत्थर।
भारी हथौड़ा हाथ में लिए हुए वह बार-बार चोटें मार रही थी। उसके सामने ऊँची-ऊँची इमारतें, अटारियाँ तथा वृक्षों की कतार थी। गर्मी के दिन थे। धूप चढ़ रही थी। सूर्य तमतमाया हुआ था। झुलसाने वाली लू चल रही थी। धरती रूई की तरह जल रही थी। धूल उड़ रही थी। दोपहर हो गई थी, पर वह पत्थर तोड़ रही थी।
शब्दार्थ :
- गुरु – दक्ष;
- प्रहार – मार;
- अट्टालिका – अटारी, महल, पक्की इमारत;
- भवन – महल;
- तरु-मालिका – पेड़ों का कतार;
- दिव – दिन;
- तमतमाता धूप – बहुत गरमी धूप;
- झुलसाती लू – अत्यंत गरम हवा;
- रुई – cotton;
- प्राकार – बड़ा भवन।
3) देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार।
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं।
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा –
‘मैं तोड़ती पत्थर।’
उसने मुझे अपनी ओर देखते हुए देखा, और तुरंत ही उसने अपने सामने वाले भवन की ओर देखा। देखा कि वहाँ कोई नहीं है फिर उसने मेरी ओर देखा। मुझे अपनी ओर देखते देखकर अपनी हीन दशा से वह संकुचित नहीं हुई। उसके हृदय में जो झंकार नहीं भी थी, वह मैंने सितार सजाकर अपनी कल्पना शक्ति से सुनी। उसके माथे से पसीने की बूंद गिर पड़ी। एक बार क्षण भर दूसरी ओर देखने के बाद वह फिर अपने काम में लग गई, जैसे वह कह रही हो, मैं पत्थर तोड़ रही हूँ।
शब्दार्थ :
- छिन्न – कटा हुआ;
- सीकर – पसीना;
- प्रहार – आक्रमण, वार।