प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य वैभव’ के ‘प्रतिभा का मूल बिन्दु’ नामक कविता से ली गई हैं, जिसके रचयिता डॉ. प्रभाकर माचवे हैं।
संदर्भ : माचवे जी ने प्रतिभा की व्याख्या प्रस्तुत की है। प्रतिभा का विकास किस तरह होता है, यह समझाने का वे प्रयत्न करते हैं।
स्पष्टीकरण : प्रतिभा कई सारे रूपों में प्रकट होती है। वह महलों की स्थापत्य कला में, गलीचों की बनावट में और बच्चों की किलकारी में प्रकट होती है। यह सब कलाएँ मनुष्य की प्रतिभा की ही देन है। यह प्रतिभा निरंतर कष्ट सहने या यातना सहने से ही प्रकट होती है। यह भी एक साधना की तरह है। विचार के स्तर पर, कल्पना के स्तर पर खूब संघर्ष करने के बाद ही कोई नई चीज प्रतिभा दे पाती है। प्रतिभा बैठे बैठाये विकसित नहीं होती है। उसे निरन्तर अभ्यास से हासिल करना पड़ता है। प्रतिभा को साधना तलवार की धार पर खड़े होने के समान है। प्रतिभा अनुशासन से आती है।
विशेष : प्रयोगवादी दौर की कविता। प्रतिभा की प्रक्रिया को समझाया गया है।