प्रसंग : प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य वैभव’ के ‘तुम आओ मन के मुग्ध मीत’ नामक कविता से ली गई हैं जिसके रचयिता डॉ. सरगु कृष्णमूर्ति हैं।
संदर्भ : अपने मुग्ध मित्र से बिछुड़कर कवि की आत्मा तड़प रही है। अपनी तड़पती हुई व्याकुल आत्मा की दहकती हुई चाह को कवि यहाँ व्यक्त कर रहे हैं।
स्पष्टीकरण : कवि अपने मुग्ध मित्र से बिछड़ गया है। वह उनका अंतरंग मित्र है, जन्म जन्मांतर का मीत है, जीवन और मृत्यु में साथ देने वाला एवं पराजयों के दुख को जीत की खुशी में बदलने वाला मीत है। इस प्रिय मित्र के स्वागत में कवि नतमस्तक है एवं उसका मन श्रद्धा से झुक गया है।