1) इस धरा पर मृदुल रस धार-सी तुम सुख का सार हो नारी
तुम वंदनीय हो, अभिनंदनीय हो, सादर नमन तुम्हें हे नारी…!
धरा सी सहनशील, जल-सी निर्मल, फूलों सी कोमल तुम नारी
जीवन की गति, जीवन की रति, जीवन की मति हो तुम नारी…!
कवि कहते हैं कि हे नारी तुम इस पृथ्वी पर कोमल रस धार-सी, सुख-सार सी, वंदनीय हो, अभिनंदनीय हो। तुम्हें सादर नमन है। तुम धरती की तरह सहनशील, पानी की तरह निर्मल, फूलों जैसी कोमल हो। जीवन की गति, रति और मति भी तुम ही हो।
2) बचपन में चहक, चिरैय्या सी तुम इठलाती
माता-पिता के मन में आनंद हिलोर उठाती।
चलती ठुमक ठुमक, बजती पैजनियाँ प्यारी
बाबुल के अंगना में तुलसी बिरवा सी न्यारी॥
बचपन में चिड़ियों की चहचहाट की तरह तुम माता-पिता के मन में आनंद की तरंगें उठाती थी। ठुमक-ठुमक कर चलते समय पाँवों की पायल बड़ी प्यारी लगती थीं। बाबुल के आंगन में तुम तुलसी के पौधे की तरह शोभा देती थी।
3) शिशु के साथ शिशु बन जाती और प्रिय के संग बनी प्रिया
क्षमा, करुणा तुम में, स्नेह और सेवा से धन्य धरा को किया
किन्तु स्वार्थी जग ने कब किसी के उपकारों को याद किया?
हे नारी! तेरी करुणा, ममता, ऋजुता का क्या प्रतिदान तुम्हें दिया?
तुम शिशु के साथ शिशु और प्रिय के संग प्रिया बन जाती हो। क्षमा, करुणा, स्नेह और . सेवा के गुणों वाली नारी तुम धन्य हो। इस स्वार्थी संसार में तुम्हारे उपकारों को किसने याद किया? तुम्हारी करुणा, ममता व सीधेपन का प्रतिदान किसने दिया?
4) नारी अबला नहीं बल्कि यह नारी रणचंडी भी है,
कृत्या है यह दुर्दम, दैत्य नाशिनी दुर्गा माँ भी है।
शक्ति और शिवानी है यह और कात्यायिनी भी है
दैत्यों के शोणित को पीने वाली महाकाली भी है।
नारी अबला नहीं, रणचंडी है, दुर्गा है, शक्ति है, कात्यायनी है। राक्षसों की संहारक और उनका खून चूसने वाली महाकाली भी है। तू अबला नहीं सबला है।
5) विविध रूपों से सजी यह नारी सृष्टि का श्रृंगार है।
नारी ही न हो तो फिर किस काम का यह संसार है।
जिस घर में इसका सम्मान है वह आनंद का आगार है।
अगर जीवन में नारी न हो, तो मानव जीवन ही बेकार है॥
विविध रूपों में सजी नारी सृष्टि का श्रृंगार है। नारी के बिना संसार किस काम का? जहाँ नारी का सम्मान है, वहाँ आनंद ही आनंद है। अगर जीवन में नारी नहीं है, तो यह मानव जीवन बेकार है।