अमरकांत हिन्दी कहानीकारों में अग्रगण्य हैं। इनकी कहानियों में मध्यवर्गीय परिवारों का जीवन चित्रित हुआ है। प्रस्तुत कहानी में भी एक गरीब निम्न मध्यवर्गीय परिवार की भूख का मार्मिक चित्रण किया गया है। चंद्रिका प्रसाद एक सरकारी-विभाग में क्लर्की करता था। छंटनी के कारण वह नौकरी से निकाल दिया गया। उसके तीन बेटे थे – रामचन्द्र, मोहन और प्रमोद। उसकी पत्नी का नाम सिद्धेश्वरी था।
चंद्रिका प्रसाद नौकरी की तलाश में सुबह से शाम तक घूमा करता था। परन्तु नौकरी मिलने के लक्षण नहीं दिखे। बड़ा लड़का रामचन्द्र प्रूफरीडरी सीख रहा था। उसे वेतन के रूप में कुछ नहीं मिलता था। दूसरा बेटा मोहन प्राइवेट रूप से हाईस्कूल की परीक्षा देना चाहता था। वह बेकार इधर-उधर घूमा करता था। तीसरा सबसे छोटा था प्रमोद।
चंद्रिका प्रसाद की स्थिति बुरी थी। उसकी पत्नी सिद्धेश्वरी दुःख की मूर्ति बनी हुई थी। वह रोटियाँ और दाल बनाकर पति व बेटों की राह देख रही थी। दुपहर का समय था। गर्मी झुलसा देनेवाली थी। बड़ा बेटा रामचंद्र भोजन के लिए बैठा।
सिद्धेश्वरी ने थाली में दो रोटियाँ, दाल और चने की तरकारी रखी थी। वह अनमने भाव से रोटियाँ खाकर उठ गया। उसने बाबूजी और भाइयों के बारे में पूछा, तो माँ ने अपने बेटे को झूठ-मूठ जवाब दिया। रामचंद्र कुछ बोला नहीं। मंझला बेटा मोहन आया। वह थाली के सामने बैठकर खाने लगा। वह मुश्किल से जली रोटियाँ खा पाया।
चंद्रिका प्रसाद भी देरी से आया। वह बहुत ही उदास था। सिद्धेश्वरी ने पति का हौसला बढ़ाया। वह खाना खाकर खटोले पर सोचते हुए सो गया। सिद्धेश्वरी की भूख लगभग मिट गई थी। वह थाली के सामने बैठ गई। एक ही रोंटी बची थी, उसने उस रोटी के दो टुकड़े किए। एक टुकड़ा छोटे बेटे प्रमोद के लिए रख दिया। वह रो-रोकर सो गया था। उसने रोटी के टुकड़े को मुँह में रखते ही, उसकी आँखों में से आँसू टपकने लगे।