प्रस्तुत पाठ में लेखक डॉ. बरसाने लाल चतुर्वेदी ने गंगा मैया के माध्यम से भ्रष्टाचार, महँगाई तथा धार्मिक ढकोसलों पर व्यंग्य किया है।
प्रदूषण के सम्बन्ध में गंगा कहती है – मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि यह हमारा देश इतना प्रदूषित क्यों हो रहा है। देश का वातावरण ही जब प्रदूषित हो गया, तब मैं कैसे बच सकती हूँ? आज चरित्र भी मानो रोने लगा है।
समाज में कई समस्याएँ बढ़ रही हैं। जैसे – ‘सेवा धर्म’ को लोग ‘मेवा धर्म’ समझने लगे हैं। अपराधी प्रवृत्ति बढ़ रही है। लोग समझते हैं कि वे कैसे भी कर्म करें, गंगा
उन्हें तार देगी। प्रदूषण तो छुआछूत का रोग है। लोग गंगाजल को मलीन कर रहे हैं। महँगाई, रिश्वतखोरी, पाशविकता आदि बढ़ती जा रही है।
आजकल एक दल, दूसरे दल से लड़ता है। दलों में अन्दर भी लड़ाई चलती है, जो दल-दल पैदा करती है। कारण अलग-अलग बताते हैं, परन्तु असली झगड़ा तो कुर्सी का ही है। कुर्सी से मतलब है – शक्ति, वैभव, धन, सम्मान, कीर्ति, आदि।
धर्म का व्यापारीकरण हो रहा है। मनुष्यों के कुकर्मों पर पशु-पक्षी भी हँसने लगे हैं। मनुष्य को समझना चाहिए कि प्रकृति सर्वशक्तिमान है। पतन की जब पराकाष्ठा होती है, तब पुनः उत्थान की किरणें फूटती हैं।