‘एक कहानी यह भी’ आत्मकथा में मन्नू भंडारी ने अपने जीवन की घटनाओं पर प्रकाश डाला है। घर का वातावरण, माता-पिता के स्वभाव, भाई-बहन और सहेलियों के साथ खेल-कूद, प्राध्यापिका शीला अग्रवाल का प्रभाव, स्वतंत्रता-आंदोलन में सक्रियता आदि का रोचक वर्णन किया गया है।
मन्नू भंडारी का जन्म मध्य प्रदेश के भानपुरा गाँव में सन् 1931 में हुआ था। वह काली, दुबली-पतली और मरियल भी थी। बड़ी बहन सुशीला गोरी थी। अतः पिता जी सदा उसी की प्रशंसा अधिक करते थे। लेखिका की सदा उपेक्षा होती। अतः वह पिता जी के स्वभाव से कभी-कभी अन्य-मनस्क हो जाती। हाँ, पिता जी के प्रति उसके हृदय में श्रद्धा थी। वह कहती पिता जी की प्रतिष्ठा थी, उनका सम्मान था और उनका नाम भी था। एक तरफ वे कोमल और संवेदनशील थे, तो दूसरी ओर क्रोधी तथा अहंवादी भी थे।
लेखिका बचपन में भाइयों के साथ गिल्ली-डंडा, पतंग उड़ाने, लँगड़ी-टाँग, गुड्डे-गुड़ियों के ब्याह आदि खेल खेला करती। लेखिका की प्रायः अधिकांश कहानियों में मोहल्ले के ही पात्र हैं।
लेखिका की अध्यापिका शीला अग्रवाल ने लेखिका को साहित्य में प्रवेश करवाया था। अनेक साहित्यकारों की रचनाएँ पढ़ने के लिए प्रेरित किया। उनके मार्गदर्शन से लेखिका ने बहुत कुछ सोचा।
पिता जी रसोई घर को भटियारखाना कहते थे। क्योंकि उनके हिसाब से वहाँ रहना अपनी क्षमता और प्रतिभा को भट्टी में झोंकना था। पिता के ठीक विपरीत थी लेखिका की माँ। धरती से भी अधिक धैर्य और सहनशील। पिता जी की हर ज्यादती को अपना फर्ज समझकर सहज भाव से स्वीकार करती थी। उन्होंने सदा दूसरों को दिया है, माँगा नहीं। सबका लगाव माँ के साथ था।
पिता जी के एक निहायत दकियानूसी मित्र ने घर आकर लेखिका के बारे में कई सारी शिकायतें कीं। खरी-खोटी सुनाई। पिता जी एक बार तो चिंतित हो गए; परन्तु उनके एक अन्य मित्र डॉ. अंबालाल जी के कहने पर पिता जी के चेहरे का संतोष धीरे-धीरे गर्व में बदलने लगा।
आजादी के आंदोलन में भी लेखिका ने भाग लिया और आखिर वह दिन आ ही गया। जीत की खुशी में उन्होंने कहा – शताब्दी की सबसे बड़ी उपलब्धि ….. 15 अगस्त, 1947.