बरामदे में पहुंचते ही शामनाथ सहसा ठिठक गये। जो दृश्य उन्होंने देखा उससे उनकी टाँगें लड़खड़ा गयी और क्षण-भर में सारा नशा हिरन होने लगा। बरामदे में ऐन-कोठरी के बाहर माँ अपनी कुर्सी पर ज्यों-कि-त्यों बैठी थीं मगर दोनों पाँव कुर्सी की सीट पर रखे हुए और सिर दायें से बायें और बायें से दायें झूल रहा था और मुँह में से लगातार गहरे खर्राटों की आवाजें आ रही थीं। जब झटके से नींद टूटती तो सिर फिर दायें से बायें झूलने लगता। पल्ला सिर पर से खिसक गया था, और माँ के झड़े हुए बाल आधे गंजे सिर पर अस्त-व्यस्त बिखरे हुए थे।