प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य गौरव’ के ‘यात्रा जापान की’ नामक पाठ से लिया गया है जिसकी लेखिका ममता कालिया हैं। ओसाका शहर का वर्णन करते हुए ममता कालिया जी ने इसे कहा।
स्पष्टीकरण : जापान की राजधानी तोक्यो का कार्यक्रम समाप्त कर लेखिका का दल बुलेट ट्रेन से ओसाका शहर पहुँचा। ओसाका स्टेशन पर उच्चायोग के प्रतिनिधि वैन लेकर इंतजार कर रहे थे। वैन बहुत क्षिप्र गति से चल रही थी। सड़क की दोनों ओर बड़ी इमारतें थीं। यहाँ अजनबी नामपटों के साथ कुछ ऐसे नामपट भी झलक जाते हैं जिनकी हम भारतीयों को सुनने की, देखने की आदत पड़ गयी है जैसे हिताची, मित्सुबिशि, काकुरा आदि। चमचमाती इमारतों के बाद रंगबिरंगे पेड़ों का सिलसिला शुरू हो जाता है। लेखिका कहती हैं – यहाँ प्रकृति की तूलिका में सात से अधिक रंग दिखाई दे रहे हैं – मोमिजी की पत्तियाँ लाल हैं, कुछ नारंगी और गुलाबी रंग भी मिले हैं, साकुरा के पेड़ सफेद फूलों से ढंके हैं। हरा रंग यहाँ चटक हरा है जैसे पत्तों पर किसी चित्रकार ने एक बार फिर रंग पोत दिया हो।