ऊधौ हम आजु भई बड़-भागी।
जिन अँखियन तुम स्याम बिलोके, ते अँखियाँ हम लागीं।
जैसे सुमन बास लै आवत, पवन मधुप अनुरागी।
अति आनंद होत है तैसैं, अंग-अंग सुख रागी।
ज्यों दरपन मैं दरस देखियत, दृष्टि परम रुचि लागी।
तैसैं सूर मिले हरि हमकौं, बिरह-बिथा तन त्यागी॥
गोपियाँ कहती हैं- हे उद्धव! आज हम सौभाग्यशाली हो गई हैं, धन्य-धन्य हो गई हैं; अपनी जिन आँखों से तुमने हमारे प्रिय कृष्ण को देखा है, वे आँखें अब हमें मिल गई हैं अर्थात् हम तुम्हारी आँखों में श्याम की आँखें, श्याम की मूरत देख रहें हैं। जैसे अनुरागी भौरे के प्रिय सुमन की गंध पवन ले आती है और उस गंध से बंधा भौंरा अपने प्रिय सुमन तक पहुँच जाता है, वैसे ही तुम्हें देखकर हमें आनन्द हो रहा है। तुम भी अपने अंग-अंग में कृष्ण का सुख राग (प्रेम) भर कर ले आए हो। जैसे दर्पण में अपना रूप देखने से दृष्टि अति रुचिकर लगने लगती है, उसी प्रकार तुम्हारे नेत्र रूपी दर्पण में कृष्ण के नेत्रों के दर्शन कर हमें बहुत अच्छा लग रहा है। जिन नेत्रों से तुमने श्याम को देखा है, उन्हीं नेत्रों में हम झांक कर देख रहे हैं। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार आज हमें साक्षात् श्याम ही मिल गए हैं और हमारे तन ने विरह-व्यथा को छोड़ दिया है, श्याम-मिलन की सुखानुभूति हमें हो रही है।