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in Class 12 by kratos

बिहारी के दोहे का भावार्थ :

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by kratos
 
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1) कनक कनक तैं सौगुनौ, मादकता अधिकाइ।
उहिं खाएं बौराइ, इहिं पाएं ही बौंराइ ॥1॥

सोना (धन) धतूरे की अपेक्षा सौ गुना अधिक नशीला होता है; क्योंकि धतूरे को तो खाने पर उन्माद होता है, परन्तु सोने को तो पाकर ही मनुष्य उन्मत्त हो जाता है। धन-दौलत का नशा पागल बना देनेवाला होता है।
अर्थात् धन बढ़ने पर मनुष्य में अहंकार आ जाता है। अहंकार के वश होकर उसे भले-बुरे का ज्ञान ही नहीं रहता। किसी वस्तु का यथार्थ ज्ञान न रहना ही मादकता है।

शब्दार्थ :
कनक – स्वर्ण, धतूरा;
मादकता – नशा;
बौराइ – बावला, पागल होना|

2) जपमाला छापा तिलक, सरै न एकौ कामु।
मन-काँचै नाचै वृथा, साँचै राँचै रामु ॥2॥

बाहरी पाखंड व्यर्थ है। भगवान भाव से प्रसन्न होते हैं, पाखंड से नहीं। इस आशय को कवि इस दोहे में व्यक्त करता है- जप करने की माला हाथ में लेकर जप करने से, सारे शरीर पर चंदन का छाप लगाने से अथवा माथे पर तिलक लगाने से एक भी काम नहीं होगा। आशय यह कि थे सब बाहरी दिखावे हैं। इनमें प्रभु-प्राप्ति नहीं हो सकती। केवल अधूरी भक्ति वाले अपरिपक्व लोग ही इन व्यर्थ के कर्मकांडों में लगे रहते हैं। जब तक मनुष्य के मन में छल, कपट, पाप और माया-मोह के विकार भरे हुए हैं, तब तक उसको संसार के भ्रम एवं माया-जाल में पड़कर नाचना पड़ता है। क्योंकि राम अर्थात् भगवान तो सच्ची भक्ति से प्रसन्न होते हैं।

शब्दार्थ :
जपमाला – जप करने की माला;
सरै – पूरा होना;

काँचै – कच्चा;

राँचै – प्रसन्न होना।

3) अधर-धरत हरि मैं परत, ओठ-डीठि-पट-जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी, इंद्र धनुष-रंग होति ॥3॥

एक सखी कृष्ण की शोभा का वर्णन कर रही है- जब कृष्ण बाँसुरी को होठों पर रखते हैं, तब उस पर होठों की, आँखों की और पीले वस्त्र की चमक पड़ती है। इसके कारण वह हरे बाँस की बाँसुरी इन्द्र-धनुष की तरह रंग-बिरंगी हो उठती है। होठों का रंग लाल है, आँखों का रंग सफेद और काला है, वस्त्र का रंग पीला है। इन सबके प्रभाव से हरे रंगवाली बाँसुरी का रंग-बिरंगा हो जाना स्वाभाविक है।
श्रीकृष्ण के सामिप्य से सामान्य बाँसुरी का इन्द्र-धनुष सा रंग का हो जाना कह कर वह व्यंजित करती है कि यदि आप उनके समीप चलेंगी तो आपकी शोभा भी रंगीली हो जाएगी।

शब्दार्थ :
अधर – होंठ;
डीठि – दृष्टि;
पट – वस्त्र;
जोति – चमक।

4) अति अगाधु, अति औथरौ, नदी, कूप, सरू, बाइ।
सो ताकौ सागरू जहाँ, जाकी प्यास बुझाइ ॥4॥

और बावडियाँ हैं। परन्तु जिसकी प्यास जहाँ बुझ जाए, उसके लिए तो वहीं सागर है। इसी प्रकार यदि बडे आदमी से उसका कोई काम न निकले और छोटे आदमी से काम निकल जाए तो उसके लिए वह छोटा व्यक्ति ही सागर के समान महान है।

शब्दार्थ :
अगाधु – गहरे;
औथरौ – उथले;
सरू – सरोवर;
बाइ – कुआँ।

5) या अनुरागी चित्तकी, गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यौं-ज्यों बू स्याम रंग, त्यौं त्यौं उज्जलु होइ ॥5॥

यहाँ किसी भक्त का कथन है। वह कृष्ण के प्रेम में डूबे मन की दशा का वर्णन कर रहा हैं- इस अनुरागी मन की विलक्षण अवस्था को कोई नहीं समझ सकता। ज्यों-ज्यों यह श्याम के रंग में डूबता हैं, त्यों-त्यों उज्जवल होता है। यहाँ विलक्षणता यह है कि काले रंग में डूबने से वस्तु काली होनी चाहिए, परन्तु मन श्याम रंग में डूबकर श्वेत हो रहा है। यहाँ विरोध का आभास मात्र है, परन्तु यथार्थ में विरोध नहीं हैं। इस दोहे का अर्थ श्रृंगार रस में भी किया जा सकता है। श्रृंगार रस में नायिका का कथन सखी के प्रति माना जाएगा।

हे सखी! इस मेरे अनुरागी चित्त की गति कोई नहीं जानता। यह कृष्ण (नायक) के प्रेम में ज्यों-ज्यों लीन होता है, त्यों-त्यों व्याकुल न होकर अधिकाधिक प्रेम-मग्न होता है। कोई भी वस्तु जब काले रंग से डुबोई जाती है तो वह काली हो जाती है और उस पर कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ता। किन्तु चित्त की विलक्षणता यह है कि ज्यों-ज्यों वह श्याम के रंग में डूबता जाता है त्यों-त्यों उज्जवल होता है अर्थात् श्यामवर्ण वाले श्रीकृष्ण के अनुराग से प्राणी मात्र का मन पवित्र हो जाता है।

शब्दार्थ :
अनुरागी – प्रेमी;
गति – चाल;
बूडै – डूबे;
स्याम रंग – साँवला रंग या कृष्ण का प्रेम।

6) बढ़त-बढ़त सम्पति-सलिलु, मन-सरोजु बढ़ि जाइ।
घटत-घटत फिरि न घटै, बरु समूल कुम्हिलाइ ॥6॥

कवि कहता है- सम्पत्ति रूपी जल के बढ़ने के साथ-साथ मन रूपी कमल की बेल बढ़ जाती है। परन्तु जब सम्पत्ति रूपी जल घटना आरंभ होता है, तब वह कमल की नाल छोटी नहीं होती, चाहे जड़ से ही सूख क्यों न जाये! वर्षा ऋतु में जब तालाब में पानी बढ़ता है, तब कमल की नाल लंबी होती जाती है और पानी के ऊपर-ही-ऊपर तैरती रहती है, जिससे फूल पानी के ऊपर रहता है। परन्तु जब तालाब का पानी घटता है, तब नाल छोटी नहीं होती।
इसी प्रकार जब सम्पत्ति बढ़ती है तब मनुष्य की इच्छाएँ और आवश्यकताएँ बढ़ जाती हैं, परन्तु जब सम्पत्ति कम हो जाती है तब इच्छाएँ कम नहीं होती, चाहे मनुष्य बिल्कुल नष्ट ही क्यों न हो जाय।

शब्दार्थ :
सलिलु – पानी;
सरोजु – कमल;
बरु – बल्कि;
समूल – जड़ सहित;
कुम्हिलाइ – मुरझा जाना।

7) समै-समै सुन्दर सबै, रूप कुरूप न कोई।
मन की रुचि जेती जितै, तित तेती रुचि होइ ॥7॥

यह समस्त सृष्टि उस प्रभु की रचना है। इसमें न कुछ सुन्दर है और न असुन्दर। अपनेअपने अवसर पर सब ओर समस्त वस्तुएँ सुन्दर लगती हैं। मनुष्य के मन की चाह जिस समय और जितनी होती है, उस समय उस वस्तु में उसको उतनी ही शोभा दिखाई पड़ती है।
बिहारी ने यहाँ सौन्दर्य का बड़ा ही व्यापक रूप प्रस्तुत किया है। उनके लिए समस्त सृष्टि ही सौन्दर्यमयी है। केवल मन की रुचि चाहिए। मन की रुचि के अनुसार ही प्रत्येक वस्तु में सौन्दर्य दिखाई पड़ेगा।

शब्दार्थ :
समै – समय;
रुचि – पसंद;
जेती – जितनी।

8) कहै यहै श्रुति सुम्रत्यौ, यहै सयाने लोग।
तीन दबावत निसकहीं, पातक, राजा, रोग ॥8॥

कवि कहता है – सब वेद और स्मृतियाँ तथा ज्ञानी लोग यही एक बात बताते हैं कि राजा, रोग और पाप – ये तीनों दुर्बल को ही दबाते हैं। भाव यह है कि दुर्बलता सबसे बड़ा पाप है। यदि कोई बलवान व्यक्ति पाप भी करता है, तो पाप नहीं माना जाता। इसी प्रकार राजा और रोग भी दुर्बल को ही दबाते हैं, सशक्त को कोई नहीं दबा सकता।

शब्दार्थ :
श्रुति – वेद;
सुम्रत्यौ – स्मृति भी;
सयाने लोग – ज्ञानी लोग;
निसकहीं – दुर्बल, अशक्त;
पातक – पाप।

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