कवि दुष्यंत कुमार कहते हैं कि समाज में अब तो दुःख, दर्द, पीड़ा हद से गुजर गयी है। दुःख के इस महा पर्वत को अब पिघलना ही चाहिए। जैसे हिमालय से गंगा की धार निकली वैसे दुःख की कोई राह निकलनी चाहिए। कवि यहाँ पर परिवर्तन की, क्रांति की बात कर रहे हैं। समाज में बदलाव लाना चाहते हैं।