राष्ट्र की प्रगति का मूल आधार है उस राष्ट्र के लोगों का अपने देश के प्रति प्रेम और आपसी स्नेहभाव का होना। इसे राष्ट्रीयता कहते है। साधारण शब्दों में राष्ट्रीयता का अर्थ अपने राष्ट्र के प्रति प्रेम का भाव रखना तथा व्यक्तिगत, जातिगत हितों को त्याग कर राष्ट्र – हित को सर्वोपरि महत्व देना है। राष्ट्र के प्रति त्याग और प्रेम की भावना देशवासियों में एकता भाव उत्पन्न करती है। राष्ट्रीय एकता राष्ट्र की समृद्धि और सुख – शान्ति के लिए आवश्यक है। राष्ट्रीय एकता, राष्ट्र को विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में खड़ा करने के अलावा राष्ट्रीय समस्याओं के निवारण और राष्ट्रीय विपदाओं का सामना करने के लिए लौह – प्राचीर है।
राष्ट्रीय एकता एक अदृश्य सूत्र है जो देश के लोगों को अपने में पिरोने का कार्य करती है। राष्ट्रीय एकता के अभाव में साम्प्रदायिकता, भाषावाद, जातिवाद, क्षेत्रीयता, अनुशासनहीनता आदि विभिन्न समस्याएं अपना सिर उठाने लगती हैं।
आज हमारे देश भारत के समक्ष राष्ट्रीय एकता की विषम तथा गम्भीर समस्या उपस्थित हैं। भारत में विभाजनकारी प्रवृत्तियाँ बड़े जोरों से उभर रही हैं। आज साम्प्रदायिक भावना, भाषायी अथवा क्षेत्रीय स्थान, उभरती हुई जातीय तथा जनजातीय प्रवृत्तियाँ, धार्मिक विद्वेष तथा प्रान्तीय भावना देश को खण्डों में विभक्त करने के लिए प्रवृत्त है। ये समस्त तत्व राष्ट्रीय एकता में बाधक सिद्ध हो रहे हैं। राष्ट्रीय एकता एक मनोवैज्ञानिक और शैक्षणिक प्रक्रिया है जिसमें लोगों के भीतर एकता, सामंजस्यता और तारतम्यता की भावना का विकास, सामान्य नागरिकता और राष्ट्र के प्रति विश्वसनीयता की भावना सम्मिलित है।
हमारा देश जनसंख्या की दृष्टि से विश्व के राष्ट्रों में द्वितीय स्थान पर आता है। भौगोलिक दृष्टि से भारत प्राकृतिक विभाजनों से ओत – प्रोत है। सामाजिक दृष्टि से भी विभिन्न जातियों, उपजातियों, भाषाओं तथा धर्म में विभक्त है। परंपराप्रिय भारतवासियों के मन – मानस में स्थानीय प्रेम प्रबल रूप से विद्यमान है। इसके फलस्वरूप एकता का मार्ग छिपा हुआ सा प्रतीत होता है। अलग – अलग सामाजिक घटक एक दूसरे को विरोधी दिशाओं में खींचने का प्रयास कर रहे हैं, इससे एकता का ताना – बाना बिखरा हुआ सा दृष्टिगोचर होता है।
जातिगत विभाजन राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक बनकर खड़ा हुआ हैं। जनजातिवाद . भी आज राष्ट्रीय एकता में बाधा है। पंथवाद राष्ट्रीय एकता के मार्ग में एक बड़ी भारी चुनौती है। पंथवाद एक ही धर्म के अनेक पंथों के बीच एक विभाजन की रेखा बना देता है। ‘भूमिपुत्र सिद्धान्त’ भी आज एक नयी बाधा के रूप में अवलोकनीय है। इस सिद्धान्त के अनुसार स्थान विशेष की सुविधाओं के यही लोग अधिकारी हैं जो वहाँ स्थायी रूप से निवास करते हैं। क्षेत्रवाद भी एकता का एक बड़ा बाधक तत्व है। क्षेत्रवाद के आधार पर क्षेत्र विशेष के लोग अपने पृथक राज्य का गठन करना चाहते हैं। क्षेत्रीय निवासी अपनी पृथक सांस्कृतिक विरासत बनाए रखने के आकांक्षी होते हैं, यह भावना एकता के मार्ग में बाधा है।
अतः राष्ट्रीय एकता के लिए धार्मिक स्थलों के दुरुपयोग पर अंकुश लगाना होगा। विभाजनात्मक राजनीतिक दलों तथा संस्थाओं पर रोक लगानी होगी। राजनीतिक दलों के लिए जो आचार संहिता बनाई जाए उस पर चलने के लिए उन पर नैतिक दबाव भी डालना होगा। सबके मन – मानस में यह बात बैठानी होगी कि हम सब भारत माता की सन्तान हैं। भारत के हित में ही हमारा हित है तथा इसके पतन में हमारा पतन है।